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Wednesday, 6 July 2016

चार्वाक : आखिर सदियों से अस्पृश्य दर्शन क्यों ?

वैदिक वांगमय में सारे स्थापित दर्शन के सूत्र यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं. चिंतन-मनन एवं अध्यापन हेतु उन्हें अलग-अलग श्रेणियों में बांटा गया. क्या कारण है कि पाश्चात्य-दर्शन की परंपरा में परिवर्तन परिलक्षित होता है, जबकि भारतीय-दर्शन आज भी जहां के तहां हैं. वैचारिक संक्रमण मनुष्य को एक धरातल से दूसरे धरातल पर ले जाता है, इसीलिए बाहर से देखने पर लगता है जैसे किसी दर्शन विशेष का खंडन हो गया. सारे दर्शन हमारी अंतर्दशा को दर्शाते हैं, जहां मनुष्य देह को केंद्र में रख कर चिंतन प्रारंभ करता है. व्यवहार हो, भौतिकता हो अथवा अध्यात्म - सबके लिए देह एक अपरिहार्य माध्यम है. उसके बारे में स्वस्थ दृष्टि होनी चाहिए.

चार्वाक दर्शन के रोचक बिंदु :
1. प्रत्यक्ष ही प्रमाण
2. देह ही आत्मा
(चैतन्य विशिष्ट: काय )
3. स्वर्ग व परलोक की अवधारणा के प्रति महत् बुद्धि जगाने का ज़ोरदार खंडन.
(न स्वर्गो नापवर्गो ना नैवात्मा पार्लौकिक:
नैव वर्नाश्रमादीनाम क्रियश्चफल्देयिका)
4. वर्णव्यवस्था का प्रारूप जन्मना ही नहीं, बल्कि कर्मणा भी  है. इसमें गुणकर्म की प्राथमिकता शास्त्रोक्त है.
5. राजा ही ईश्वर
6. यज्ञ में पशुबलि व नरबलि का विरोध
7. श्राद्धकर्म का विरोध
8. मृत्यु  ही  मोक्ष
9. भस्म-तिलक-माला-जटा आदि बाह्य पाखंड का विरोध
10. अश्वमेध-यज्ञ में व्यक्ति से जु़ड़ी अंतरंग क्रिया का विरोध

दर्शन की सुदीर्घ व समृद्ध परंपरा में सर्वप्रथम नाम आता है चार्वाक दर्शन का. सदियों से यह ऐसा दर्शन रहा है, जिसका दर्शन तो दूर, अवलोकन या मंथन की बात तक करने से कथित प्रबुद्ध-वर्ग और वैदिक साहित्य के झंडाबरदार भड़क जाते हैं. चार्वाक को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रस्त एक बड़ा वर्ग इसे दर्शन ही नहीं मानता. जबकि अन्य वर्ग इसे वेद-निंदक, ईश-निंदक या परलोक को नकारनेवाला अथवा, सबका खंडन करनेवाला मानते हैं. क्या चार्वाक दर्शन इतना त्याज्य अथवा, अनुपादेय है? यदि ऐसा ही है, तो श्रीमद्भगवद्गीता, भागवत महापुराण और कई उपनिषद इसके पक्ष में क्यों हैं ?
चार्वाक की सर्वाधिक निंदा इसके दो विचारों को लेकर प्राय: होती है. एक -

यावज्जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:

अर्थात, जब तक जियो मौज़ से जियो और कर्ज़ लेकर घी पियो मतलब मौज़ मस्ती करो, कैसी चिंता, देह को भस्म हो जाने के बाद फिर वापस थोड़े ही अाना है?
कर्ज़ के लिए वित्तीय संस्थाएं कमाई या संपदा का प्रमाण-पत्र देखती हैं. अक्सर संपति गिरवी रखी जाती है. यहां तक कि कर्ज़ के तलबगार के चरित्र की पड़ताल की जाती है. कर्ज़ लेकर जीने को गलत मानने की अवधारणा बहुधा उन्नति नहीं होने देती. जैसे उत्पादन के वास्ते कारखाना लगाना या महंगी मशीन, बस, ट्रक आदि खरीदना - अनेक मामलों में पूरी पूंजी नहीं मिल पाती. कुछ राशि कई बार अपनी ज़ेब से लगानी पड़ती है. शिक्षा के लिए कर्ज़ भी सहज नहीं मिलता. प्रमाण-पत्र न्यूनाधिक हो सकते हैं, पर इसकी प्रक्रिया दुरूह होती है.
चार्वाक ने ऋण लेकर घी पीने या सुखपूर्वक जीने की बात असल में व्यक्ति के स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर कही है. यह दर्शन लगातार सुखपूर्वक जीने की बात करता है. अब ना तो रोज़ कर्ज़ मिलता है ना ही रोगी सुखपूर्वक जी सकता है. उसके लिए परिश्रम एवं स्वास्थ्य दोनों चाहिए. तो क्या यह दर्शन भौतिकवादी या जड़वादी हो गया? देह धारण के पश्चात रोटी, कपड़ा, आवास सबको चाहिए. जीने की न्यूनतम ज़रूरतों की पूर्ति न्यायसम्मत व धर्मसम्मत है. जबकि भौतिकवाद या जड़वाद वह है, जहां व्यक्ति संसाधनों पर अपना एकाधिकार समझ मनमानी करने लगता है. प्रसंगवश उल्लेख्य है कि उपनिषदों में कहीं भी गरीबी या भिक्षाटन को महिमामंडित नहीं किया गया. यह भावना लेखक की कपोल-कल्पना मात्र नहीं है. यह मुगालते में ही रहना होगा कि साहूकार यूं ही कर्ज़ दे देता है. वह भी संपति के आधार पर कर्ज़ देता है या उसके बदले बंधुवा मज़दूरी करवाता है.
दूसरा विचार वेद से संबद्ध है, जिसका निहितार्थ जाने बिना ही चार्वाक को कठघरे में खड़ा कर सज़ा सुना दी गयी है. दूसरा विचार है :

त्रयो वेदस्य कर्तारो भण्डधूर्त निशाचरा:, जर्भरीतुर्फरीत्यादि पंडितानां वच: स्मृतां
अश्वस्यात्र हि ... तु पत्नी ग्राह्यं प्रकीर्तितं, भण्डैस्तद्वत्परं चैव ग्राह्य जातं प्रकीर्तितं,
मांसानां खादनं तद्वन्निशाचरसमीरितं.

अर्थात, कर्मकांड के नाम पर अश्वमेध-यज्ञ की कुछ क्रियाएं सभ्य समाज के अनुकूल नहीं हैं. दूसरी ओर, पशुबलि जिन यज्ञों में होती है, वहां प्रसाद के रूप में उसके मांस को ग्रहण करने का विधान है. यदि चार्वाक ने इस पर प्रश्न उठाया, तो क्या गलत कर दिया? इस पर विशद चर्चा सही समय-सही स्थान पर की जा सकती है. वैदिक सूत्रों पर चर्चा वैदिक नियमों के दायरे में ही होनी चाहिए. जैसे रसायनिकी के मामले में भौतिकी प्रमाण नहीं है, वैसे ही दर्शनों के मामले में मनमाने ढंग से कुछ भी कहना न्यायसंगत या शास्त्रसम्मत नहीं है.
चार्वाक पर प्रामाणिक ग्रंथों की कमी नहीं है. एक ग्रंथ सन 1940 में ओरियंटल इंस्टीच्यूट वडोदरा से प्रकाशित जयराशिभट्ट विरचित ‘तत्वोपप्लवसिंह:’ है. इससे 12 वर्ष पहले सन 1928 में कलकत्ता से प्रकाशित ‘चार्वाक षष्ठी’ ग्रंथ भी उल्लेखनीय है, जिसके रचयिता हैं दक्षिण रंजन शास्त्री.
चार्वाक-दर्शन के सिद्धांतों की संख्या को लेकर विद्वानों में मतभेद रहा है. भट्टजी के ग्रंथ में जहां यह संख्या 10 भी पार नहीं करती, वहीं शास्त्रीजी के ग्रंथ में यह संख्या 100 है. इसमें खासियत यह है कि ब्रह्मसूत्र की भांति पूर्व-पक्ष के सिद्धांतों के साथ उत्तर-पक्ष को भी रखा गया है. सरसरी तौर पर देखने से ग्रंथ में विरोधाभास झलकेगा, जिससे पाठक या शोधार्थी भ्रमित हो सकता है. अन्य मतों के आचार्यों ने विरोध के नाम पर चार्वाक के सूत्रों का उल्लेख अपने ग्रंथों में किया है. अत: जब शोध करने की इच्छा बलवती हुई, तो सभी संबद्ध पक्षों का समग्र समावेश करना पड़ा.
किसी दर्शन को समझने के दो तरीके हैं - पहले में मताग्रह हावी रहता है. स्वयं को प्रिय लगनेवाले दर्शन के सिद्धांतों में लक्ष्यार्थ देखा जाता है. जबकि दूसरे तरीके में ग्रंथों के साथ संगति लगायी जाती है और दर्शन को दर्शन के धरातल पर समझा जाता है, ना कि मनमाने तरीके से. संस्कृत व्याकरण के लचीलेपन या संस्कृत में सुलभ प्रामाणिक-ग्रंथों की ढीली या भेद्य कूटबद्धता के कारण इनका मनमाना अभिप्राय निकाल गया. फलस्वरूप ऊल-जलूल व्याख्याएं कर दी गयीं. लक्ष्य एक ही रहा - येन-केन-प्रकारेण अपने मत को स्थापित करना. मध्ययुग के अनेक आचार्यों के आपसी मतभेद का अतिवाद उनके साहित्य में दिखता है. प्रतिपादन की शैली भिन्न हो सकती है, परंतु यहां तो मूल ग्रंथ ही नहीं छोड़ा गया. इसका ज्वलंत उदाहरण हैं श्रीमद्भगवद्गीता पर रचे गये भाष्य व टीकाएं. बहुतेरे अपना राग अलापने में लगे हैं. बहुतों के लिए वह प्रामाणिक ग्रंथ ही नहीं है. वे खुल कर नहीं बोलते, परंतु प्रच्छन्न रूप में विरोध जारी है. रामकथा का कचरकूट तो बेधड़क हुआ है. अप्रामाणिक या भ्रामक तथ्यों से भरे ग्रंथों के आधार पर धारावाहिकों और प्रवचनों का बोलबाला है. ऐसे माहौल में चार्वाक का अवहेलित रहना स्वाभाविक है. हाल यह है कि नास्तिक शब्द की व्याख्या भी मतानुसार हुई है. इसका प्राचीन उल्लेख महाभारत में हुआ है, जहां हर बार यह मूर्ख के अर्थ में प्रयुक्त है.
कर्मकांड में विश्वास रखनेवालों के लिए परलोक ही सब कुछ है. जब वेदांत उसे हल्के रूप में चित्रित कर उसमें महत् बुद्धि नहीं जगाता, तब उसे तो कोई नास्तिक या अनीश्वरवादी नहीं कहता! गीता के द्वितीय अध्याय में कर्मकांडवाले भाग पर हल्के रूप में दृष्टिपात किया गया है. इसी तरह भागवत में भी स्वर्गादि की प्राप्ति हल्के ढंग से चित्रित है अर्थात, वह बड़ी प्राप्ति नहीं मानी गयी है, वरन लोक से दूर रहने की शिक्षा दी गयी है. उन्हें कहीं-कहीं निरर्थक तक बतलाया गया है.
चार्वाक का यह कथन कितना तार्किक है कि चाहे देह से हो या दुख से, मुक्ति पूरी तरह मरण से ही संभव है - मतलब मृत्यु ही मात्र मोक्ष है. कर्मकांड के आक्रामक व आडंबरवाले िहस्से व्यर्थ उपक्रम हैं और स्वर्ग-नर्क पुरोहितों के दिमाग से उपजे प्रपंच. यह परंपरा असुर समाज के मनीषियों की देन है. इसी का पुरज़ोर विरोध चार्वाक ने किया है. परलोक का कोई प्रमाण नहीं है.
चार्वाक की अवहेलना के पीछे खानदानी ढंग से चला राजतंत्र का विरोध भी है. चार्वाक ने स्पष्ट रूप से कहा - ‘ जनता द्वारा समर्थित व्यक्ति राजा है और उसे ईश्वर की तरह मानो.’ यह स्पष्टत: आज के लोकतंत्र का समर्थन है. ऐसी भावना अन्य दर्शन में नहीं मिलती. इसके सिद्धांतों से कूटनीतिज्ञ चाणक्य तक प्रभावित थे. चार्वाक ने ज़ोर देकर कहा :
 वरमद्यकपोत: खो मयूरात् -
यानी संदिग्ध भविष्य में सुंदर मयूर की आशा संदिग्ध है. वर्तमान के कम सुंदर कपोत को ग्रहण करना चाहिए. चार्वाक के इस सूत्र को चाणक्य ने अपनाया. प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग तथा उसमें संतोष करना कोई गलत शिक्षा नहीं है. चार्वाक की उपयोगिता असंदिग्ध है. काश! दर्शन-शास्त्र संकाय में चार्वाक को ठीक से पढ़ाया जाता.

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