Thursday 15 September 2016

स्वामी अक्षय चैतन्य से रमेश िद्ववेदी का साक्षात्कार.


 

सनातन संस्कार और साहित्य पर स्वामी अक्षय चैतन्य से रमेश िद्ववेदी का साक्षात्कार, जो रविवार 17.07.2016 को प्रभात खबर, कोलकाता में प्रकाशित हुआ.

Ramesh Dwivedi

 

 साधु नहीं चाहते साधुवाद

 वैदिक वांगमय के विशद अध्येता और उसकी प्रामाणिकता के पक्षधर स्वामी अक्षय चैतन्य इन दिनों कोलकाता प्रवास पर हैं. आपको चार्वाक दर्शन का अधिकारी विद्वान माना जाता है. वर्ष 2013 में आपने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित ‘भारतीय दर्शन में निहित मूल्यबोध’ विषय पर व्याख्यान दिया था, जो काफी चर्चित हुआ था. आप साधु-संतों पर समाज में प्रचलित धारणा को सही दिशा देने के हिमायती हैं. आपसे रमेश द्विवेदी  ने संस्कार व साहित्य पर विस्तृत बातचीत की.
स्वामी अक्षय चैतन्य की दो पुस्तकें जर्मन पब्लिकेशन से प्रकाशित हो चुकी हैं, जो चार्वाक-दर्शन और यक्ष प्रश्न पर हैं. आपकी तीन और पुस्तकें एक अमेरिकी वेबसाइट पर उपलब्ध हैं. आपके दो ब्लॉग हैं, जिनमें हिंदी, अंगरेज़ी में कुछ प्रेरक कविताएं व तात्विक लेख हैं. यू-ट्यूब पर आपके दर्जनों वीडियो सनातन धर्म के विभिन्न विषयों पर विविध आयामों से प्रकाश डालते हैं. संस्कार व साहित्य पर आपके विचार स्पष्टवाद दर्शाते हैं.

 

प्र.1). गृहस्थों के लिए सरल एवं उत्तम साधना क्या है ?
- सर्वभूतहिते रता की भावना, ईश्वरार्पण बुद्धि और स्वधर्म पालन ही सर्वोत्तम, सरलतम एवं मुफ्त में होनेवाली साधना है.
 

प्र. 2). यह तो आतताई, आतंककारी भी करते हैं, तो ?
- उनमें पहलेवाली चीज़ नहीं रहती. मात्र अपने गुट, वाद, संप्रदाय, पंथ या धर्म विशेष की भलाई की कामना रहती है.
 

प्र.3). इससे और क्या लाभ होता है ?
- कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान हावी नहीं होता. वैश्विक हित की कामना प्रदूषण रोकती है. व्यक्ति स्वत: अध्यात्म-पथ का अनुगामी हो जाता है.

 प्र.4). जन्म से वर्ण-व्यवस्था के निर्धारण में क्या अच्छाई है?
- बच्चा अपने पिता की कला बचपन से सीख सकता है. पैतृक-व्यवसाय के ग्राहक उसे मिल जाते हैं. बहुधा उसे बेकार नहीं रहना पड़ता.
 

प्र.5). फिर वर्ण-व्यवस्था बदनाम क्यों हो गयी?
 - अपना एकाधिकार कायम रखने हेतु औरों को आगे जाने से रोकना अनुचित है. शिक्षा, नौकरी और व्यापार में यह बहुत हुआ. इसके नाम पर शोषण अधिक हुआ है. जन्मना माननेवाले अपनी मर्यादा में नहीं रहे. खोखले दंभ में डूबे रहे.
 

प्र.6). वैदिक वांगमय किसके पक्ष में है ?
- एक शब्द में कहें तो आचरण. इसका खुलासा करें तो गुण-कर्म-स्वभाव. यहां गुण योग्यता से संबद्ध है.

 

प्र.7). यानी एक वर्ण परिवार में जन्मे बच्चे के गुण दूसरे वर्ण परिवार जैसे हों, तो उसे दूसरे वर्ण का ही माना जाये?
- बिल्कुल ठीक. राजा दिष्ट का पुत्र नाभाग कर्म के चले वैश्य बना. उस वंश में मरुत हुए, जो कर्म के चलते राजा बने. ऋषि विश्वामित्र और ऋषि वाल्मीकि का उदाहरण प्रसिद्ध है. इस नियम के चलते ही सांपों में भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र माने गये हैं. यह वर्गीकरण आयुर्वेद के सर्पदंश निवारण अध्याय में भी मिलता है. 
 

प्र.8). क्या स्वयं में कोई दिन, समय, रंग, दिशा, शुभ-अशुभ होते हैं ?
- कतई नहीं. सब संग-दोष या आचरण-दोष से शुभ-अशुभ बनते हैं. गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के बालकांड में कहा भी है  -
ग्रह, भेषज, पट, पवन जल पाइ कुजोग-सुजोग ।
होहिं कुवस्तु सुवस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ।।
 

प्र.9). फलित ज्योतिष से क्या होनी टल सकती है?
- कदापि नहीं. पलटने का अधिकार ज्योतिष-शास्त्र के पास नहीं है. जितने दावे किये जाते हैं, उनकी जांच होने से यह बात उजागर होती है. संक्षेप में कहें, तो गणना से घटना के होने या ना होने का पता चल जाता है. प्राय: होने का भय दिखा कर जप-क्रियाएं बताई जाती हैं. यदि ज्योतिषी का संबंध जौहरी से है, तब वह ग्रह-दोष के निवारणार्थ रत्न  सुझाता है, नहीं तो हवन, दान, जप, तीर्थयात्रा आदि बतलाता है. 
 

प्र.10). आपने कई जगह दक्षिण दिशा को उत्तम बताया है, जबकि गरुड-पुराण व ऐसे एकाधिक ग्रंथों के आधार पर प्रचलित मान्यता कुछ और है. गीता के उत्तरायण मार्ग को स्वर्ग और दक्षिणायण मार्ग को नर्क बताया जाता है.
- दक्षिण दिशा ब्रह्मविद्या के आचार्य यमराज या धर्मराज की दिशा है. कठोपनिषद के अनुसार नचिकेता, यमराज के पास जाकर यह विद्या सीखते हैं. दूसरी ओर, पूजा के आरंभ में दसों दिशाओं को नमन किया जाता है. इसमें दक्षिण, यजुर्वेद से संबंधित है और इसके अधिपति देव हैं - रुद्र और इंद्र. गीता में दक्षिणायण का संबंध आवागमन से है. फिर चाहे वह नर्क हो या स्वर्ग. उत्तरायण का संबंध उस स्थिति से है, जहां आवागमन नहीं है. ध्यानाभ्यासी या साधक को हर दिशा को गुरुत्व देना चाहिए. यूं बाधाएं अधिक परेशान नहीं करतीं.
 

प्र.11).आप वर्ष 2001 में कोलकाता के बड़ाबाजार के तीन विद्यालयों में गीता पढ़ाने गये थे, वहां का अनुभव कैसा रहा?
- अधिकतर बच्चों को यही नहीं पता कि यह संवाद किसने लिखा. उनके घर में गीता की प्रति तक नहीं थी. खरीदने के लिए ग्रंथ-विक्रय केंद्र गये तो नये-पुराने संस्करण के फेर में पड़े रहे. जब गीता की प्रतियां मुफ्त बांटी गयीं, तब कइयों ने छीना-झपटी में फटने की बात बताते हुए दूसरी प्रति मांगी, क्योंकि घर में उनसे कहा गया कि फट गयी तो क्या हुआ. खेल-खेल में फट गयी. दूसरी मिल जायेगी. ये किसी मिशनरी के विद्यार्थी या अन्य धर्म-ओ-मज़हब के बच्चे नहीं थे. कई अभिभावक आकर प्रधानाचार्य से यह कार्यक्रम रोकने की बात करने लगे और दो-टूक कह दिया कि वे अपने बच्चों को गीता पढ़ाने के लिए यहां नहीं भेज रहे.
 

प्र.12). गोस्वामीजी ने साधना की दृष्टि से एकादशी के बारे में क्या कहा है ?
- तुलसीदास कृत विनय-पत्रिका के अनुसार एकादशी का अर्थ मन को वश में करना है. यद्यपि मन को वश में करना कठित है, पर असंभव नहीं. प्राणायाम, ध्यान, चिंतन-मनन के सतत अभ्यास से यह संभव है.
 

प्र.13). यू-ट्यूब में रामचरितमानस पर आपके वीडियो हैं. उसमें आप किसी गणित का उल्लेख करते हैं, उसके बारे में कुछ बतायें.
- मानस के उत्तरकांड दोहा 53 के बाद कहा गया है  -
नर सहस्र महं सुनहु पुरारी । कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी ।।
धर्मसील कोटिक महं कोई । बिषय बिमुख बिराग रत होई ।।
कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई । सम्यक् ग्यान सकृत कोउ लहई ।।
ग्यानवंत कोटिक महं कोई । जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ ।।
सब तो सो दुर्लभ सुरराया । राम भगति रत गत मद माया ।।
इस ग्रह पर मनुष्यों की आबादी धर्मसील में खप जायेगी. एक करोड़ धर्मसील में एक वैरागी. यहां अतिशयोक्ति अलंकार नहीं है. जीवन के कटु-सत्य का वर्णन है. गोस्वामीजी की दृष्टि में बाहरी तामझामवाली स्थिति की क़दर नहीं है. बाहरी वेशभूषा पहचान हेतु ज़रूरी लगे, यह और बात है, परंतु उसे महिमामंडित करना अनुचित है.
 

प्र.14). गायत्री पर आपके आलेख को जैसे बहुतेरों ने नकार दिया. क्या कहेंगे?
- उसके पहले छांदोग्योपनिषद को नकारें, उस पर लिखे भाष्य को नकारें, फिर भाषांतर या अनुवाद को नकारें. समष्टि लाभ पर चर्चा करें. व्यष्टि लाभ तो वामाचार से भी होता है. परंतु टिकता नहीं है.
 

प्र.15). हनुमानजी, जाम्बवंत, जटायु, संपाती आदि सही मायनों में क्या थे?
- ये पूरी की पूरी पशुयोनि वाले नहीं थे. इस चतुर्युग के महापुराण श्रीमदभागवत के मत से वे किम्पुरुष थे, जो पशु, पक्षी एवं मनुष्य की मिलीजुली योनि थी.
 

प्र.16). क्या सुरापान या मद्यपान की अवधारणा अपने यहां प्राचीन-काल से रही है ?
- वारुणी तथा मेरेयक नामक सुरा का उल्लेख श्रीमदभागवत में है. मेरेयक पीने में मीठी, पर मादक अधिक थी. देवराज इंद्र व बलराम वारुणी-पान के पश्चात मदमस्त होते हैं, तो द्वारका के राजकुमार मेरेयक पीकर. अब द्राक्षासव भले ही आयुर्वेदिक दवा मानी जाये, परंतु यह है एक भांति की सुरा. अल्कोहल की मात्रा नशे का स्तर तय करती है. रस या जूस कहें तो ठीक, केमिकल या रसायन कहें तो निषिद्ध. सौत्रामणि-यज्ञ, वामाचार और अन्य तामसी क्रियाओं में सुरा का उपयोग होता रहा है. कहीं-कहीं भैरव मंदिर में यह चढ़ाई जाती है. उज्जैन-धाम में यह देखा था. कम से कम उसे प्रसाद के रूप में नहीं बांटा गया. मात्र ढक्कन खोल कर मुंह जैसे छेद में उड़ेल दिया गया. वहां इसे धार्मिक कृत्य माना जाता है.
 

प्र.17). आजकल अच्छे संत घटते क्यों जा रहे हैं ?
- गृहस्थ से निकल कर ही व्यक्ति ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास की ओर बढ़ता है. उसमें जब भोगवाद या बाज़ारवाद हावी हो गया है, तब उससे निकला व्यक्ति कितना सही हो सकता है. आपलोग संत-महात्माओं को कोसते हैं, भ्रष्ट नेताओं को धिक्कारते हैं, परंतु अपना वैयक्तिक स्तर (जिसे आत्ममंथन से आत्मसुधार की ज़रूरत है) नहीं देखते. परिवारों में संस्कार देने के नाम पर अंधानुकरण हो रहा है? मात्र किताबी ज्ञान से चरित्र नहीं सुधर सकता. गृहस्थों को नियम-धर्म से चलते हुए सुदृढ़ होना पड़ेगा.
 

प्र.18). सदियों से समाज में साधु-संत, ऋषि-मुनि रहे हैं. इनमें ढोंगी-पाखंडी की पहचान कैसे करें. समाज के प्रति संतों का कर्तव्य क्या है और उनसे गृहस्थों का बर्ताव कैसा होना चाहिए.
- सदियों से संतों का एक ही कर्तव्य रहा है. वह चिंतन-मनन और व्यक्तिगत शोध के ज़रिये उन चीज़ों को समाज के सामने रखे, जिससे उसका सर्वांगीण विकास हो. चूंकि गृहस्थों के पास उसके लिए समय नहीं होता, अत: यह कार्य संतों पर छोड़ा गया था. इसके एवज़ में समाज उनकी आश्यकताओं की पूर्ति करता था और वे निश्चिंत होकर अपना योगदान देते थे. रही बात ढोंगी-पाखंडी संतों की पहचान करने की, तो चूंकि गृहस्थ-कुटुंब से ही साधु भी निकलते हैं, तो संतत्व की कठिन दिनचर्या का अनुपालन उनमें कइयों से नहीं हो पाता, इसलिए भटकाव आ जाता है. मतलब यह नहीं है कि पूरी संत बिरादरी ही भ्रष्ट हो गयी. संत तो पात्रता देखता है, फिर दे दिया करता है. बदले में कीर्ति-कंचन-कामिनी की कामना नहीं करता. समाज के दोषों को अनदेखा करनेवाला ठकुर-सुहाती बतियाता है.
जो शोध के ज़रिये समाज को कुछ दे रहे हैं, उनको यथासामर्थ्य प्रोत्साहित करना समाज का कर्तव्य है. कम से कम संत को हतोत्साहित करने का प्रयास नहीं करना चाहिए. वैसे भी साधु नहीं चाहता साधुवाद. यदि साधु कुछ देता है, तो गृहस्थों को बदले में आदर्श बर्ताव का प्रतिदान तो देना ही चाहिए, जिसका विधान हमारी प्राचीन मनीषा में भी है.
 

प्र.19). क्या आशीर्वाद से बच्चे संभव हैं? मानसी-सृष्टि क्या अब संभाव्य है?
- गर्भोपनिषद, वृहदारण्यकोपनिषद का अंतिम अध्याय, आयुर्वेद दैहिक-संबंधों को पुष्ट करते हैं. वैदिक काल में प्रजापति वर्ग के ऋषिगण संतति या सृष्टिकार्य करते थे. वहां भी निर्माण की बात है. अवतार भी कुछ अन्य नहीं, वरन् रासायनिक प्रकिया से ही निर्माण है, जिसके ज़रिये विशेष अधिकार दिया या शक्तिपात किया जाता है.
 

प्र.20). फिर आजकल यह गलत रूप में कैसे प्रचारित है?
- गुरु को भगवान मानो, उसके साथ दैहिक-संबंध उचित है, इससे नारी जीवन सुफल होता है, उससे पुत्र प्राप्ति में सहूलियत है - जैसी मनगढ़ंत बातें विभिन्न संप्रदाय के प्रवर्तक या उनकी आगे की पीढ़ियां फैलाती रही हैं. सन 1944 के पहले लाहौर के कुछ मामले चर्चित रहे हैं. इसी विषय पर सन 1885 में बंबई उच्च न्यायालय में वैष्णवों के एक संप्रदाय से संबद्ध एक मुकदमा हुआ था. एक नहीं, दसियों संप्रदाय इसे ग़लत नहीं मानते. यह नयी परंपरा नहीं है. दो-एक की पोल खुलती है, कुछ दिन होहल्ला मचता है, फिर सब त्यों का त्यों.
 

प्र.21). क्या बाबा लोग समाज-सेवा के साथ व्यापार भी कर सकते हैं ?
- हर कार्य साम-दाम-दंड-भेद पर आधारित है. आजकल साधना का यह रूप अधिक प्रचलित है. यह बिल्कुल उचित नहीं है. दरअसल साधु-संतों का काम व्यापार करना नहीं है. लिहाज़ा उनसे व्यापारी की तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए.
 

प्र.22). साहित्य में बौद्धिक आतंकवाद बड़ा चर्चित शब्द रहा है. क्या भारत में यह किसी रूप में दिखता है ?
- हर शासक कुछ बुद्धिजीवियों को पालता है. जहां जिसकी दाल गलती है, वहां उसके अनुरूप पाठ्यक्रम में फेरबदल, साहित्य की मनमानी व्याख्या, अपने गुरु के रचयिताओं को आगे बढ़ाने, चहेतों को विद्यालय-महाविद्यालय-विश्वविद्
यालयों में खपाने आदि के कृत्य करवाये जाते हैं. विचारधारा विशेष के उपन्यास साल-दर-साल पढ़ाये जाते रहते हैं. िनहित स्वार्थ के आगे निरपेक्ष योग्यता िनस्सहाय बनी रह जाती है. जी हां, यह धीमा विष बड़े सधे हुए ढंग से पिलाया जाता है. इसे ‘वो’ नहीं तो और क्या कहेंगे.

प्र.23). आप साहित्य साधक भी हैं. आपकी एकाधिक पुस्तकें बाज़ार में हैं. ऐसे में साहित्य को अगड़े, पिछड़े, दलित, नारी आदि वर्गों में बांटे जाने को किस तरह देखते हैं?
- साहित्य का ऐसा वर्गीकरण काम्य या उपादेय नहीं है. इससे तो वैमनस्य ही बढ़ा है. कोई भी किसी के आंसुओं को स्याही बना कर या दुखती रग को टटोल कर साहित्य-सृजन कर सकता है, पर इससे प्रयोजन संदिग्ध रहता है, उसका सिद्ध होना तो दूर की बात है. सहितस्य भावं इति साहित्यं अर्थात्, जिसमें सब समाहित हो यानी सबका कल्याण हो, वही साहित्य है. साहित्य तो साहित्य होता है, अगड़ा, पिछड़ा, तेरा, मेरा नहीं हुआ करता. मां शब्द प्राचीन, अब तक अर्वाचीन. मख्खन युगों से बनता आया, हर बार नवनीत कहलाया. समीक्षा बच्चों का खेल नहीं है. जब उस अदृश्य सत्ता को देखने की दृष्टि ही संकुचित रही, तो साहित्य कैसे अछूता रहता.