Monday 13 October 2014

महाकुंभ का समसामयिक विवेचन

 रमेश द्विवेदी जी को शत शत धन्यवाद । अपनी व्यस्त दिनचर्या में से समय निकाल कर इसे तैयार किया ।

 




महाकुंभ का ऐसा समसामयिक  विवेचन अन्यत्र दुर्लभ, निरुत्तर हो गया हूं.

काश! संतों के बारे में सामाजिक सोच बदल जाता महाकुंभ / साधु नहीं चाहते साधुवाद

 - महाशिवरात्रि को संपन्न हुआ था प्रयाग महाकुंभ-2013 - प्रयाग महाकुंभ-2013 में सशरीर रहे स्वामी अक्षय चैतन्य का सामयिक व आध्यात्मिक विवेचन

जब त्रेता में श्री राम, सीता स्वयंवर के लिए जनक दरबार में पधारे, तब सभी ने निज भावभूमि से उनके दर्शन किये. बैरियों (दुश्मनों) को वह काल स्वरूप लगे, भक्तों को इष्टरूप, तत्वज्ञों को तत्व स्वरूप तो वृद्ध-गृहस्थों को आदर्श-पुत्र स्वरूप लगे. वैसी ही भावना महाकुंभ को लेकर होती है, जब हम इसका सशरीर हिस्सा बनते हैं. जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि. यह सिद्धांत हम सब पर समान रूप से लागू है.

    तो आइये हम इस बार इलाहाबाद में लगे पूर्णकुंभ के अवलोकन से इसका सार आत्मसात करने की चेष्टा करें. वस्तुत: कुंभ भारतीय साधु-संत समाज का वह मेला है, जहां हर आयु, वर्ग, श्रेणी, बोली, स्तर, जाति, ढंग व संप्रदाय या पंथ के संत-महात्मा इकट्ठे होते हैं. वैसे गाहे-बगाहे साधु कहीं-ना-कहीं दिख जाते हैं, पर कुंभ में वे एक साथ भारी संख्या में विविध, विचित्र रूपों में दिखते हैं. खड़िया पलटन से लेकर मनीषी संतों का जमघट लगता है. यह वैयक्तिक स्तर पर भावबोध या संस्कार पर है कि व्यक्ति या भक्त उनसे पाना क्या चाहता है.

    हम बहुधा धरा पर रहते हुए भी यथार्थवादी धरातल से उठे या कटे रहते हैं. यानी ज़मीनी सच्चई से मुंह फेरे रहते हैं. इसका ज्वलंत उदाहरण महाकुंभ-2013 के विशाल मेला-प्रांगण में दिखा. वहां कठोपनिषद के सत्संग में इने-गिने लोग ही थे. इसकी एक कक्षा सेक्टर सात में साधना सदन के शिविर और दूसरी कक्षा सेक्टर नौ में मां पूर्णप्रज्ञा के शिविर में चलायी जा रही थी, जबकि फिल्मी गीतों की पैरोडी पर भजन पेश करते शिविरों में हजारों की भीड़ थी. कहने को कह सकते हैं कि कठोपनिषद से बहुतेरे अनजान हैं, तो वे क्यों जाते?

    अनजान तो आप नागा, गांजा सुल्फा व कई भौंड़ी हरकतें करनेवाले साधुओं से भी हो सकते हैं. उनके शिविरों में कतार लगाते तो हिचक नहीं हुई, अर्थात घर में बैठ कर ऐसे साधुओं की निंदा या आलोचना तो खूब की जाती है, पर ऐसे मौकों पर उन्हें देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाते.

विरले ही भेद पाते हैं घेरेबंदी । दूसरी दृष्टि से देखें, तो महाकुंभ या ऐसे अन्य मेलों में ऐसे दृश्य भी जरूरी हैं. रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने दुष्टों को बखाना है. इसलिए कि वे ईश्वरोन्मुख होने को प्रेरित करते हैं. कुंभ में ऐसी भीड़ जुटानेवाले साधु, उन मनीषी या पहुंचे हुए संतों (जिन्हें स्वभावत: सुर्खियों में रहने से परहेज होता है) की रक्षा करते हैं, जो भीड़ की रेलम-पेल से दूर रहना चाहते हैं. कोई जिज्ञासु या सत्यान्वेषी ही ऐसी घेरेबंदी को भेद पाता है.

    प्रशासनिक स्तर पर देखें, तो इस बार का महाकुंभ सफल रहा. यही क्या कम है कि मेला परिसर में इस दफा ना तो एक मख्खी भिनकी, ना ही मच्छर भन्नाये. ऐसा संभव हुआ अभूतपूर्व सुरक्षा-व्यवस्था के कारण. भीड़ का मार्गदर्शन करते जवानों व स्वयंसेवकों की मुद्रा व भंगिमा सकारात्मक थी.
    इतिहास के आईने में झांकें, तो पता चलता है कि कुंभ में बेशकीमती जानें जाती रही हैं. इस दृष्टि से प्रयाग का महाकुंभ-2013 भी अछूता नहीं रहा. एकाधिक मामलों में लोगों की हठधर्मिता, उत्तेजना, आवेग, आवेश से हद हो गयी और स्थिति विकट होने लगी. वे बात मानने को राजी ही नहीं थे. इसका खामियाज़ा अनेक लोगों को भुगतना पड़ा. मौनी अमावस्या के शाही स्नान के दिन यह अकिंचन भी भगदड़ में फंसा, पर स्थिति बिगड़ते-बिगड़ते संभल गयी.
  
अन्न क्षेत्र के मामले में स्थिति बहुत अच्छी थी. हजारों लोगों के भोज की व्यवस्था मुफ्त थी. कहीं-कहीं दो वक्त के भोजन के साथ नाश्ते का इंतजाम भी था. कई लोग यथाशक्ति खिंचड़ी बनवा कर सुबह बांटते थे. विचित्र परंपरा वाले देश के महाकुंभ में एक अलहदा चलन भी दिखा. एक शिविर में खड़े-खड़े ही पत्तल-गिलास फेंकने का नियम था. वे लोग दाल, चावल व सब्जी तो झुककर परोसते, पर रोटी के लिए शर्त थी कि दोनों हाथ ऊपर उठा कर मांगें. पूछने पर जवाब मिला :
‘सब कोई भिखारी हो और बिना ऐसे मांगे रोटी नहीं मिलेगी.’
 उनके यहां पानी भी नहीं दिया जा रहा था. यूं तो अनेक शिविरों में सबके लिए पानी नहीं था, पर वहां साधु-संतों को पानी से भरा गिलास जरूर दिया जाता था.

    कुंभ में पुण्य स्नान की आस में करोड़ों लोग पहुंचते हैं. सब यही सोचते हैं कि मुख्य स्नानवाले दिन संगम में सहज ही डुबकी लगा लेंगे और इससे मुक्ति मिल जायेगी. वस्तुस्थिति तो महाकुंभ जानेवाले ही जानते हैं, पर इतना तय है कि मुख्य स्नानवाले दिन आम गृहस्थ अपने बूते विशेष डुबकी नहीं लगा सकता. उसे किसी ना किसी अखाड़े के साथ होना पड़ता है, अन्यथा, शाही स्नानवाले दिन तड़के से ही अखाड़ों की अंतहीन कतार उमड़ने लगती है.

सर्वप्रथम जूना अखाड़े की बारी आती है, जिसके अंतर्गत नागा साधुओं का जुलूस निकलता है. फिर अन्य अखाड़ों की कतार लगती है. इनमें महामंडलेश्वर अपने-अपने मंडलेश्वरों के साथ सजे-धजे वाहनों में निकलते हैं. उनके साथ शिष्यों की भीड़ रहती है, जिनमें गृहस्थ भी अपने-अपने अखाड़ों के बिल्ले लगाकर साथ चलते हैं. कई फरसा या परशु, त्रिशूल, तलवार, चिमटे आदि लेकर शक्ति-प्रदर्शन करते हुए चलते हैं. इन सब के स्नान में ही दोपहर बीत जाती है. आम गृहस्थ को आस-पास गंगा-यमुना या दूसरी नदियों में डुबकी लगा कर संतोष कर लेना पड़ता है.

    कुंभ के माहात्म्य को एक और दृष्टि से देखना-समझना युक्तिसंगत होगा. इस देश में नदी-संगमों की कमी नहीं है. कहीं ना कहीं नदियों का संगम होता रहता है. ना जाने कितनी धाराएं गंगा को पुष्ट करती हैं. चंबल से यमुना और फिर वह गंगा में मिल जाती है. हर कुंभ समाज को कुछ ना कुछ देकर ही जाता है. इलाहाबाद में एक ओर से गंगा, दूसरी ओर से यमुना आकर मिलती हैं, अदृश्य सरस्वती नदी की तुलना हम ज्ञान रूपी सरस्वती से करें, तो वह कुंभ के दौरान उपलब्ध रहती है.

इसके सामाजिक निहितार्थ पर मंथन करें, तो पता चलता है कि मत-मतांतर के लोग जब एक साथ-एक जगह मिलते हैं, तो एक नवचेतना की गुंजाइश पैदा होती है, जो राष्ट्रीयता की भावना को प्रोत्साहित करती है. इतना बड़ा जन-सैलाब विश्व में कहीं अन्यत्र नहीं उमड़ता. इसका उपयोग राष्ट्रीय समस्या के समाधान में होना चाहिए, जिसका प्रयास इस महाकुंभ में भी दुर्भाग्यवश नहीं दिखाई पड़ा.

जैसा समाज वैसा साधु
  
अखाड़ा परिषद, शंकराचार्य पीठों व आम मठों की आपसी खींचतान को देख कर यही लगा कि प्रश्न चाहे गंगा का हो अथवा गाय का, यत्र-तत्र-सर्वत्र वर्चस्व की लड़ाई है. सभी अपने झंडे या परचम तले दूजे को देखना चाहते हैं. यहां तक कि तिरंगे के नीचे भी एकजुट होने से अनेक लोगों को गुरेज है. जैसा समाज, वैसा साधु. आखिर वह भी तो समाज से ही निकला व पनपा है, किसी परग्रह से आया एलियन नहीं!

No comments:

Post a Comment